जोड़ तोड़ जुगाड़ बस !

कभी कभी बहुत मलाल होता है
शहर मैं जीना कितना मुश्किल होता है
इधर रात की नींद भी पूरी नहीं होती
और उधर सुबह का सूरज निकल आता है
दौड़ते भागते - पेट की आपाधापी मैं
मालूम ही नहीं पड़ता, और दिन गुजर जाता है
कभी सोचने और समझने की फुर्सत ही नहीं मिल पाती
बस अर्थ जुटाने में हे सारा वक़्त निकल जाता है
कब बचपन बीता, कब जवानी से बुढापा आ गया
कुछ भी याद नही रहता
तीस मैं भी जीवन साठ सा नीरस बन जाता है
मुश्किलें, किल्लते और जिल्लते सहते सहते
आँखों का पानी और मन का सब्र
सब खो जाता है सब टूट जाता है
न दिल मैं फिर कोई दया बचती है
न ही मानवीय संवेदना
रह जाता है तो सिर्फ
जोड़ - तोड़ - जुगाड़ बस !
ये ही सार शेष रहता है जीवन के अंत मैं ................. रवि कवि

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