शहर तो मिल गया पर ...............

मैं उस दिन से दुखी हूँ
जिन दिन से शहर से जुडा हूँ
मैं शहर से क्या जुडा
तब से नित रोज़ टूट रहा हूँ
पहले अपने रुट्ठे
फिर सपने टूटे
जिस चमक ने चका चौंध किया
क्या मालूम था कि,
एक दिन ये मन की शांति हे छीन लेगी
संवेदनाये मरती चली जाएँगी
स्वार्थ और मजबूरी के नाम पर
अनचाही घटनाये घटती रहेंगी
लोग तो अब यह भी कहने लगे है
कि मैं अब पहले जैसा नहीं रहा
बहुत बदल गया हूँ
लेकिन सच तो यह है
कि मुझे खुद नहीं मालूम
मेरे साथ ऐसा क्या हुआ
जो धुप मैं जले चेहरे कि रंगत के साथ साथ
मेरे अन्दर का इंसान भी जल गया
पैसा पैसा और पैसा
जरूरते तो पूरी हो गयी
लेकिन गुरूर पूरा नहीं हुआ
मैं ये कहाँ से कहाँ आ गया
जहाँ कोई साथ नहीं है मेरे
न सच्चा दोस्त, नो हमसफ़र
जिसको देखता हूँ
वो मुझे मेरे जैसा ही दीखता है
यकीनन शहर तो मिल गया
मगर सुख चैन सब हर गया है
गाँव मैं था तो हर शख्स
अपना भाई अपना दोस्त, बड़ा ही अपनापन था
लेकिन शहर मैं पूरा जीवन खर्च करके भी
एक सच्चा अपना कोई न मिला
अब पूरा जीवन खपा के शहर मैं
बस इतना ही मर्म समझ मैं आया है
कि शहर मैं जीने वाले वो परिंदे होते है
जो सुकून रुपी गाँव के घोंसले को
तिनको कि झोंपडी समझकर, छोड़ आते है
और चूहे के बिल की सी शहर की जिन्दगी को
एक खुबसूरत आशियाना समझ कर
बहके हुए पतंगे की तरह फिर
रौशनी की चपेट मैं जीवन ही लुटा बैठते है................. रवि कवि

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