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Showing posts from June, 2009

जग ने मुझे बनाया वेश्या....................

जग ने मुझे बनाया वेश्या नोंच नोंच कर खाया है बेच शारीर मैंने अपना घर परिवार चलाया है मेरा जुर्म था बस इतना थी गरीब की मैं इक बेटी पढना लिखना था मुझको जब नहीं मिला कोई भी सुख न रोटी थी न छप्पर था दीन हीन घर का मंजर था पहले धोखे से लुटा तन फिर मजबूरी में बिकने लगा लगा दिया फिर वो तमगा जो जीते जी की मौत था और मैं हालत की मारी बेबस बन गयी इक वेश्या रोज़ ग्राहक आते जाते मेरा तन बना दिया इक बिस्तर क्या जुर्म येही था कि हुई में पैदा इक गरीब के घर सारे सपने लूट के मेरे समाज की सबसे बेहया नारी का ठप्पा लगा दिया यूँ तो सभ्य समाज है दुनिया सारी सारे ही लोग बहुत भले है फिर काहे को मजबूरों का शोषण सब मिल जुलकर करते है शास्त्र बताते है देवता भी नारी का सम्मान करते थे पर आज कि इस दुनिया में देख गरीब की बेबस बेटी कोई मौका पाते ही कलंकित कर देते है क्यों सिर्फ खुद की माँ, बहिन और बेटी ही अपनी दिखती है माँ बहिन बेटी किसी की भी क्यों न हो पर जब उसकी आबरू लुटती है सारी कायनात समझो फिर राक्छासों की बस्ती है जिस समाज में नारी को बेचना अपना शरीर पड़े जो जननी को बिस्तर समझे ऐसे समाज का कोई अस्तित्व नहीं पर ये

होके जुदा मैं............

तुम किसे ये कह रहे हो कि चले जाओ तुम मेरी जिन्दगी से सांस भी मैं हूँ, धड्कड़ं भी मैं ही हु तेरी जुदा होके मैं तुझसे कैसे रहूँ ........... रवि कवि

सौदा मुझे जचता नहीं

जीतकर हारना, हारकर जीतना मेरी आदत नहीं, मेरी आदत नहीं मैं भले ही रहूँ, या न रहूँ पर ये सौदा मुझे जचता नहीं ................... रवि कवि

पायेगी क्या ............

तू जिन्दगी मुझे, भला हरा के पायेगी क्या तू जीत कर भी, जीत पायेगी क्या ............. रवि कवि

कौन देता है .........

कौन देता है जिन्दों को दवा कौन करता है जीते जी की दुआ कोई रहता नहीं साथ सदा जीत के भी होते है इम्तिहान सदा हर कोई दौड़ता भागता है यहाँ दो पल ठहरने का सुकून भी भला कहाँ एक दुसरे को गिरा - उठा बस येही खेल है चलता हुआ उम्र बीत जाती है सिर्फ कशमकश लिए और जिन्दगी ख़त्म भी हो जाती है एक दिन सपनो को यूँही छोड़कर संजोया हुआ....................... रवि कवि

प्रेम होता है ...........

प्रेम होता है तो होने दो जुनुने इश्क चढ़ने दो मैं, मैं रहना ही नहीं चाहता मुझे इन मदभरी आँखों में डूबा रहने दो मुझे मोहब्बत हो गयी है ये बात जग को पता चलने दो यूँ भी अब सब मिल गया है मुझे इसलिए मेरे नाम को फूलों की तरह बिखर जाने दो अब नाम दो या बदनामी मुझे जो मेरा रब राजी तो सब राजी .............. रवि कवि

हदें ..............

देखना है तो देखिये बेशर्मी के हदें नामे मोहबत हुई खामख्वा शरीरे बैचैनी बढ़ रही है बे - परवाह ( प्रयोजन :- सार्वजानिक स्थल पर अश्लील हरकत करने वालो के नाम) रवि कवि

हदें ..............

देखना है तो देखिये बेशर्मी के हदें नामे मोहबत हुई खामख्वा शरीरे बैचैनी बढ़ रही है बे - परवाह ( प्रयोजन :- सार्वजानिक स्थल पर अश्लील हरकत करने वालो के नाम) रवि कवि

येही जीवन की भक्ति है.......................

किससे लडू, किससे शिकायत करूँ सब तो अपने है हर किसी से कुछ न कुछ हमारे रिश्ते है कोई खून का सम्बन्धी है, कोई दोस्त, कोई पडोसी, कोई कुछ पल का हमराही सब हमसे जुड़े हुए लोग ही तो है शायद उसकी कोई मज़बूरी ही रही होगी जो वो गिरगिट की तरह बदल गया कुछ फायेदे के लिए रिश्तों को कुतर गया तो क्या हो गया ? उसको ख़ुशी मिली, तरक्की मिली चलो किसी का फायेदा हुआ बेशक वो में नहीं था मगर जिसे भी हुआ वो मेरा अपना था और इतना ही काफी है ख़ुशी मनाने के लिए वैसे भी इस दौड़ती भागती जिन्दगी में किसी के पास फुर्सत के पल ही कहाँ होते है बाजारी युग है, तो जो भी पल है सब पहले से ही पैसे के लिए बिके होते है सोचने समझने और रिश्तों को निभाने की बेबकूफी ऐसे में भला कौन करना चाहेगा जो जरा सा कुछ बन जाता है ताकत पा लेता है समझो खुदा ही बन जाता है देता भी नहीं और भिखारी भी बना देता है सुना था वक़्त भागता है तेजी से पर इस युग का आदमी वक़्त से कही ज्यादा तेजी से भागता दिखाई पड़ता है हीरे की पहचान कोयला करता है झूट प्रपंच और राजनीती सब सफलता के मार्ग बन चुके है ईमानदारी परिश्रमी और सच्चा होना नरक के रास्ते है ये खेल खूब चल रहा

प्रेम कि अद्दभुत लीला ................

प्रेम कि अद्दभुत लीला देखो कोई करता है कोई डरता है प्रेम कि अजब तस्वीर देखो कोई दीखता है कोई छिपता है प्रेम का निर्गुण रूप देखो कोई लड़ता है कोई सहता है प्रेमियिओं कि प्रेम भक्ति देखो कोई छलता है कोई अपनाता है करते है बड़े बड़े तप प्रेमी कोई रिझता है कोई रिझाता है ये प्रेम बड़े बड़े खेल खेले लुक छिप दुनिया से करवाता है ना सोचता है न सुनता है दिल ही दिल में रहता है बन प्रेम नगर का राजा ये खोजे प्रेम नगर कि रानी को खाए कसमे सभी तोडे रस्मे सभी कोई नियम कायदा यहाँ नहीं चलता है बस प्रेम करो चाहे जैसे भी करो चाहे खुल के करो चाहे छिप के करो कभी खाओ धोखा, कभी दो धोखा बड़ा अजब ये प्रेम का फ़साना है पर जो भी हो ये प्रेम एक नायाब कारनामा है जिसे करने को हर दिल चाहता करना चाहता है .............. रवि कवि

मेरा रब अब तू ही.........

तेरे काँधे पे सर रख कर मुझे लगता है कुछ ऐसे कि जीवन हो जाये पूरा इसी अंदाज़ में जीते ना मेरा है कोई अपना ना मेरा है कोई सपना में बैठी बस रहू हर पल तेरे ही आगोश में ऐसे ना दुनिया कि जरुरत है ना मुझको कोई डर है मेरे महबूब कि बांहों का घर ही अब मेरी जन्नत है मेरा नसीब भी तू है मेरा संसार भी तू है मेरे सुख दुःख कि दुनिया का तुही हमराह अब इक है साँसों को नहीं परवाह मेरे दिल के धड़कने कि मेरे जब साथ तू है तो तू ही धड़कन है अब मेरी उमरियाँ बीत जाये बस तेरे साए में यूँ ही अब में मांगू और क्या रब से मेरा अब रब भी है तू ही ............. रवि कवि

आपको देखा है ................

जो हमने पूछा अपने आप से कि ख्वाब किसे कहते है तो जवाब ये आया अन्दर से जो सच ना हो उसे कहते है अगर वाकई ऐसा होता है तो हमने भी ये मान लिया है कि हमने आपको नहीं बल्कि किसी ख्वाब को देखा है ......... रवि कवि

व्यथित हूँ में !!!!!!!!!

कुंठित हूँ में व्यथित हूँ में एक आग सी जल रही है सीने में चारो तरफ एक सा नजारा है जो बाहर है वही भीतर है दीखता नहीं कोई सहारा है आँखें है मगर अन्धकार बहुत घना है भ्रमित, चकित, अविश्वसनीय समां है खोजती आस हर कोई नज़र है सब एक जैसे ही है लाचार भाई सारे है जिसे देखो वो ही हमसे बड़ा है अपने दर्द के घेरे में मुस्कान बरबस नहीं जबरन आती है पीडा छिप भी कहा पाती है उपाए कोई सूझता ही नहीं आवाज़ सुनने वाला कोई भी दीखता नहीं खुद का साया भी साथ साथ चलते चलते थक सा गया लगने लगा है मानों बेबस तरसती लडखडाती जिन्दगी मेरी तरह सबकी लगती है कैसे मान लू की ये जिन्दगी है सच तो ये है कि जीना महज एक किस्म कि मजबूरी है जो कि हम सबकी एक सी है .......................... रवि कवि

भाषा ही बदल दी ...............

अपने ही देश में अनाथ सी रहती है असहाए लाचार अपनों की दुत्कार से छिन्न भिन्न सी अवसाद ग्रसित सी एक ठोर खोजती है देश को पहचान दी थी कभी आवाज़ बनकर राह दिखलाई थी जिसने कभी आज़ादी की ढाल होती थी कभी अब उसे पूछने वाला कोई नहीं बस पुरे साल में उसका एक १५ दिवसीय पखवाडा मना कर याद कर लिया जाता है जिस भांति बुजुर्गो का श्राद्ध कर्म किया जाता है कितनी अफ़सोस की बात है कि जिसको हमने अपनी मात्र भाषा बनाया आज उसी देश में उस भाषा पर बस कुछ चन्द सरकारी मौको पर सहानुभूति की चादर सम्मान सहित चढा दी जाती नौकरी नहीं मिलती एकदम नाकाबिल करार दिए जाते है अब हिंदी में काम करने या बात करने वाले सिर्फ और सिर्फ ठोकर धक्के और अपमान पाते है वहीँ किराए की माँ को माँ कहने वाले शान ओ शौकत - इज्ज़त पैसा और सममान पाते है यूँ भी अब माँ बाप की इज्ज़त कौन करता है फिर हिंदी तो महज़ भाषा ठहरी क्या फर्क पड़ता है ...................... रवि कवि

हम मजदूरो पर तरस खाइए ...............

भूखा हूँ रोटी खा लेने दीजिये सिर्फ इतनी सी जरुरत है मेरी इसको समझ लीजिये फिर मुझसे बेशक विकास की बात कर लेना सपनो की दुनिया दिखा देना मेरा योगदान जरुरी है देश के लिए ये पाठ भी पढ़ा देना फिर भले ही मेरा सर्वस्व समर्पण मांग लेना मगर अभी में हाथ जोड़ता हूँ आपके मुझे बख्श दीजिये कुछ भी नहीं है पहले ही मेरे पास कम से कम मेरी जमीन से अपनी गिद्ध नज़र हटा लीजिए जैसी भी है जितनी भी है पर ये जमीन मेरी माँ है जो मेरे और मेरे बच्चों का जैसे भी सही पेट पालती है माना कम मिलता है मगर फिर भी सुकून है क़र्ज़ में डूबा हूँ - मगर फिर भी मालिक हूँ मत बनाओ मुझे श्रमिक या गुलाम किसी फेक्टरी या कंपनी का छोड़ दीजिये मुझे, और चले जाइये ओ गरीबो को धोखे से लूटकर अमीर बन ने वालों महल खड़े करके गरीब की झुग्गी को भी न बख्शने वालों हम मजदूरो पर भगवन के लिए तरस खाइए अपने सपनो के लिए मेरे सपने मत उजाडीए मेरी भूमि मेरा सब कुछ है मेरी जिन्दगी पर तरस खाइए ......... रवि कवि

तारे जमीन पर ..............

परिवर्तन की बयार चल पड़ी है कुछ इस रफ़्तार से कि हर चीज़ बदल रही है क्या जमीन पे, क्या आकाश से हिमालय धरती पर पिघल रहा है, पानी चाँद पर मिल रहा है बेजुबान जानवर शहरों में बढ़ रहे है, आदमी जंगल पर राज कर रहा है गंगा जल अपवित्र और बोत्तल बंद मिनरल वाटर मुंह चढ़ रहा है हवाई बस और हवाई रेल बन रही है लड़कियों का पहनावा पारदर्शी, और लड़को के नाक कान छिद रहे है अब तो हारमोन बदलकर सेक्स भी खूब चेंज होने लगा है दुनिया को गे और लेस्बियन कल्चर का सबक भी मिलने लगा है हत्यारे बलात्कारी नेता बन रहे है, संत कि तरह पूज रहे है बेचारे संत चरित्र अपमानित और इल्जामों से अटे पड़े है रात रात भर जागना और दिन दिन भर सोना अब काम धंधे भी कुछ इस तरह के हो रहे है खेत खलियान सूने, चौपाल पे मातम मिलता है और कंप्यूटर पर इ- चौपाल कि रौनक मची है एसी दफ्तरों में बैठकर ग्रामीण विकास हो रहा है सामाजिक विकास का नारा, और खुद के घर का विकास ज्यादा हो रहा है कर्ज दे देकर, अमीर बनाने कि परंपरा भी खूब चल पड़ी है कितने मजे कि बात है, कि अब परमाणु एटम बम बना बना कर देश खुद को सुरक्षित महसूस करते है हद तो अब इस कदर हो गयी है कि धरती