रिश्तों की बगावतें !!!!!!!!!!!

मुझे गुरेज नहीं है स्वीकारने में कि तुम मेरे नहीं हो
मुझे अहसास है कि तुम अपनी उलझनों से घिरे हो
ये रिश्तों कि बगावतें अब यूँ भी बहुत आम हो चली है
शहरों में ये बयार बहुत तेजी से चल रही है

संयुंक महज एक शब्द रह गया है
निज स्वार्थ से युक्त हर जिन्दगी हो चली है
साथ रहने कि परंपरा बेमानी हो गयी है
प्यार से दो बोल बोलने कि रवायत कहाँ रही है

जिसे दोस्त समझो, जिसे अपना समझो
सब दिखावे के मुखोटे पहने चले आते है
हमदर्द बनकर मिलते है और उल्टा दर्द बढा कर चले जाते है
ये ही पहचान अब शहर कि जिन्दगी बन गयी है

ख़ास अब कुछ भी नहीं रहा
हर चीज़ सौदा बन रही है
भीड़ के बोझ तले
संस्कृति दबने लगी है

सांस लेना भी कभी कभी दूभर लगता है
क्या क्या संभाले इस तेज रफ़्तार जिन्दगी में
जिसमे संवेदनाये अर्थ हीन हो जाती है
अनमोल चीज़ बेमौल और बेमौल चीज़ अनमोल बन जाती है

बड़े बुजुर्गों कि हैसियत कहीं कुछ नहीं दिखती
हर कोई मनमानी जिन्दगी जीना चाहता है
दूर जाने कि अब कोई जरुरत नहीं हमको
एक छत के नीचे रहकर भी जिन्दगी फासलों में कटना आम हो गयी है .......... रवि कवि

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