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Showing posts from May, 2012

जनता दो प्रकार की होती है

जनता दो प्रकार की होती है एक वो जो वोट डालती है और दूसरी वो जो वोट नहीं देती है जो जनता वोट देती है वो आमतौर पर गरीब, पिछड़ी हुई, नारकीय/ बदहाली में रहने वाली या गाँव या झोपड़ पट्टी में में रहने वाली, अनपढ़ या थोडा बहुत पढ़ी लिखी हुई जो कभी कभी थोडा बहुत लालच या वादों के लच्छों में उलझ जाने वाली, जाति या धर्म के नाम पर भी बहक जाने वाली जनता ........ जो धूप हो बारिश हो कैसा भी मौसम हो कितनी भी लम्बी लाइन हो कितना भी अन्य जरुरी काम हो सबकी परवाह किये बगैर वोट दिवस को उत्सव समझ वोट देने को घर से निकल ही जाती है पर जो जनता वोट नहीं डालती , अक्सर, ज्यादा पढ़ी लिखी, आर्थिक रूप से सबल, देश दुनिया के हालात से अच्छी तरह रूबरू रहने वाली, हर मुद्दे पर पर आक्रोश और प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाली विशेषकर ... राजनितिक व्यवस्था से जुड़े लोगो से लाभ लेने वाली जनता ..................... वोट देने की प्रवर्ती से कोसो दूर रहती है या दे भी दिया तो मानो बड़ा अहसान किया वैसी अकड़ का भी खूब परिचय देती है लेकिन ज्यादातर तो, काम जरुरी ना हो तो वोट दिवस को छुट्टी का दिन बना कर घुमने निकल जाने वाली जनता ही होती ह

रहबरी का सहारा

कुछ रब का अहसान रहा मुझ पर कुछ तेरी रहबरी का सहारा मिला वर्ना जख्म के समंदर में डूबकर भी भला कोई जिन्दा रहा है कभी? लोगो ने तो बहुत कुछ किया पल पल रंग बदल बदल छाया को भी न बख्शा कभी जहाँ भी जैसी भी मिला मौका करतूत कोई रहने न दी पर उसकी मेहर और तेरा सिहराना जिन्दगी की ढाल बना रहा मैं हर दर्द को हर मर्ज को छोड़ आया जहाँ भी जैसे ही वो मिलते रहे आखिर यह भी कोई गले लगाने की चीज़ होते है भला ? जब मेरा रब मेरे साथ है और में अपने यार के करीब.................. रवि कवि

मैं किसान हूँ,

बस सितम दर सितम सहे जा रहा हूँ अपनों से दूरी बेगानों से शिकवा मिली घाव घेहरे होते रहे और दर्द से चीख उठती रही मगर फिर भी हाथ में हल लिए अपने खेतों पे जा रहा हूँ मैं किसान हूँ, अपनी माटी की खुसबू और अपनी फसलों से मोहब्बत में जिन्दगी से जुगलबंदी कर रहा हूँ टाट पैबंद के कपडे लपेटे सुबह से शाम सिर्फ मेहनत के भरोसे कर्तव्य अपना किये जा रहा हूँ मैं किसान हूँ, सूखी रोटी खाकर , खुद से खुद की झूटी तसल्ली दिलाकर क़र्ज़ के बिस्तर पे फटेहाल जिन्दगी से बदतर तकिये पे सर टिका कर रात भर अगले दिन की खबर के सपने बुने जा रहा हूँ मैं किसान हूँ, खुद के घर के चूल्हे में आग जले न जले मगर औरों के पेट की फिक्र में खुद के पेट में आग ही आग जला के तपे जा रहा हूँ काली रात जो कभी न सुबह देख पायेगी ऐसी जिन्दगी को जीकर पीकर सवाल बने जा रहा हूँ मैं किसान हूँ, कैसा इंसान हूँ लहुलुहान हूँ मगर लहू बहता हुआ दिखा नहीं सकता हाँ ! लेकिन औरो का पेट मेरे लहू की कीमत पर है भरता है और देखिये ये बिडम्बना कैसी है जो औरो के लिए तिल तिल पल पल मरता है उसकी जिन्दगी की कीमत जला हुआ कोयले से ज्यादा कुछ नहीं मैं किसान हूँ, मे