वैचारिक महामारी का आपातकाल

सुना है आजकल
वैचारिक महामारी का
अघोषित आपातकाल लागू हुआ है
जो सीधा हर दिलो - दिमाग को अपनी गिरफ्त में ले रहा है
जिसके असर से अब
शहर में हर कोई
शह और मात का खेल
खेल रहा है
जो चाय की दूकान पर साथ बैठकर चाय पिया करता था
जो अख़बार का एक पेज  मेरे हाथ में
और दूसरा पेज उसके हाथ में हुआ करता था
आज वही नफ़रत के लिबास को ओढ़ कर
घर से निकलता है
चाय या अखबार नहीं
अब उसे पत्थर प्रिय लगते है
जो पत्थर घर बना सकते है या रास्ते
अब उन्ही पत्थर से उजाड़ने की इबारत लिखी जाती है
उसे शायद किसी ऐसी ही वैचरिक महामारी ने घेर लिया है
ये वो महामारी है जिसमें
दिमाग भावना शून्य हो जाता है
और फिर भाव शून्य मन और शरीर
एक रोबोट की तरह काम में लग जाता है
जिसे ना खून का रंग पता है ना संबंधों का
वो तो महज रोबोट बन
अपने स्वार्थी आकाओं के कहने पर
 बस कहीं भी कहीं पर भी बिफर
 या कहे फट पड़ता है
और देखते देखते - आँखों के सामने ही
बेगुनाहों की जिन्दगी और उनका घर बार सब
इस वैचारिक महामारी की चपेट में खामोश हो जाता है
पर फर्क कोई किसी को नहीं पड़ता
क्यूंकि आजकल
लगभग
हर कोई किसी ना किसी वैचारिक महामारी के चपेट में है
और सब इस भ्रम में है
कि उन्हें कोई वैचारिक महामारी नहीं लगी
बल्कि वो तो दूसरों की वैचारिक महामारी का भूत उतारने चले है
लेकिन भूल
सब जाते है
कि रास्ते कितने भी बना लीजिये हुजूर
लेकिन बिना पथिक रास्ते सब बेमानी पड जाते है
विचार अगर सुविचार नहीं
जिसमे मानवता के प्रति रत्ती भर भी करुणा नहीं
वो विचार सर्वदा - वैचारिक महामारी है
और महामारी - जब फैलती है
तो सबको एक साथ ही निगलती है
भ्रम में तनिक भी मत रहिये, साहब
आपके दिलो - दिमाग के भीतर पल रही वैचारिक महामारी
आपके लिए भी भारी है
किसी जूनून या भ्रम में जीने वालों
अच्छे से जान लो
विचार वो ही सहेजो - जो सुविचार हो
और मानवीय संवेदना जिनके साथ हो
अन्यथा 
ये वैचारिक महामारी का दलदल आपके लिए एकदम तैयार है    ......... रवि कवि
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