भाषा ही बदल दी ...............

अपने ही देश में अनाथ सी रहती है
असहाए लाचार अपनों की दुत्कार से
छिन्न भिन्न सी अवसाद ग्रसित सी
एक ठोर खोजती है
देश को पहचान दी थी कभी
आवाज़ बनकर राह दिखलाई थी जिसने कभी
आज़ादी की ढाल होती थी कभी
अब उसे पूछने वाला कोई नहीं
बस पुरे साल में उसका एक १५ दिवसीय
पखवाडा मना कर याद कर लिया जाता है
जिस भांति बुजुर्गो का श्राद्ध कर्म किया जाता है
कितनी अफ़सोस की बात है
कि जिसको हमने अपनी मात्र भाषा बनाया
आज उसी देश में उस भाषा पर
बस कुछ चन्द सरकारी मौको पर
सहानुभूति की चादर सम्मान सहित चढा दी जाती
नौकरी नहीं मिलती
एकदम नाकाबिल करार दिए जाते है
अब हिंदी में काम करने या बात करने वाले
सिर्फ और सिर्फ ठोकर धक्के और अपमान पाते है
वहीँ किराए की माँ को माँ कहने वाले
शान ओ शौकत - इज्ज़त पैसा और सममान पाते है
यूँ भी अब माँ बाप की इज्ज़त कौन करता है
फिर हिंदी तो महज़ भाषा ठहरी
क्या फर्क पड़ता है ...................... रवि कवि

Comments

Asha Joglekar said…
दिल से निकला आक्रोश पर यहां तो सब अंधे बहरे बैठे हैं कुरसियों पर ।

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