व्यथित हूँ में !!!!!!!!!

कुंठित हूँ में व्यथित हूँ में
एक आग सी जल रही है सीने में
चारो तरफ एक सा नजारा है
जो बाहर है वही भीतर है
दीखता नहीं कोई सहारा है
आँखें है मगर
अन्धकार बहुत घना है
भ्रमित, चकित, अविश्वसनीय
समां है
खोजती आस हर कोई नज़र है
सब एक जैसे ही है
लाचार भाई सारे है
जिसे देखो वो ही
हमसे बड़ा है अपने दर्द के घेरे में
मुस्कान बरबस नहीं जबरन आती है
पीडा छिप भी कहा पाती है
उपाए कोई सूझता ही नहीं
आवाज़ सुनने वाला कोई भी दीखता नहीं
खुद का साया भी
साथ साथ चलते चलते
थक सा गया लगने लगा है
मानों बेबस तरसती लडखडाती
जिन्दगी मेरी तरह सबकी लगती है
कैसे मान लू
की ये जिन्दगी है
सच तो ये है
कि जीना महज एक किस्म कि मजबूरी है
जो कि हम सबकी एक सी है .......................... रवि कवि

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