मंदिर और मस्जिद के दीवाने

मेरे मन का भगवान
तेरे मन का अल्लाह
एक दुसरे से कह रहे है आज
कि मंदिर और मस्जिद के दीवाने
सिर्फ कर रहे है अपनी अपनी बात
मन में करके खड़ी दीवार
कैसे बचेगी ये अपनी खुबसूरत कायनात
नफरत और द्वेष के आगे
सिर्फ और सिर्फ
बंटवारा मिलता है
श्रद्धा नहीं त्रासदी को बल मिलता है
और आज का इंसान
इसी को धर्म या मजहब समझता है
कैसे समझाए इसे
क्या करे ऐसा
जिन्दगी का मर्म
कतई नहीं है
जुदा धर्म और जुदा इंसानियत का होना ......................... रवि कवि

Comments

Unknown said…
Awesome poem sir.......

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