ये भी कोई मैंने जिन्दगी जी................

मैंने जीवन ऐसे बिताया
जैसे कोई जानवर चारपाया
हर चीज़ की मुझे जिद रही ऐसी
जैसे सब कुछ मेरे लिए ही बना हो
मैंने कभी किसी की बात न मानी
क्योंकि मुझे आदत थी
सिर्फ अपनी तरह जीने की
जिस तरफ दिल ने चाहा
उस और ही चल भागा
न दिन की सोची न रात की
न घर की सोची न घरवालों की
न अच्छे की सोची न बुरे की
बस करता चला गया
बढ़ता चला गया
यूँ तो अकेला ही चला था
मगर कुछ बिन चाहे दोस्तों की कतार में शामिल हो गया
कब हुआ कैसे हुआ ये तो याद नहीं
पर इन अजनबी रिश्तों के आने से
मेरे अपने सभी अपने रिश्ते जरुर छूटते चले गए
और जिनकी मैंने परवाह भी कभी की हो
ऐसा भी कुछ हुआ नहीं
लगता था जैसे की मेरी जिन्दगी बदल गयी
सिगरेट, तम्बाकू, शराब सब मेरी मानो जिन्दगी बन गयीं
लत कब आदत बनी
आदत कब लाचारी हुई
लाचारी कब बेचारगी लगने लगी
बेचारगी कब जिन्दगी लील गयी
होश में रहता कभी
तो मालूम भी होता
लाख समझाना मुझे मेरे अपनों का
बार बार इलाज़ करवाना मेर रोगों का
घर से ज्यादा अस्पताल में रहना
इन सबके बाबजूद मुझे
रत्ती भर अहसास न होना
की मैं क्या खो रहा हूँ
इस अनमोल जीवन में
सब मेरा लुट गया
उस नशे की काल कोठरी में
जो मुझे सबसे प्रिये रही सर्वदा
पर जब धीरे धीरे शरीर
रोगों का घर बनने लगा
कस्ट बे पनाह बढ़ने लगा
तब शायद थोडा अहसास हुआ
की कुछ या कहू बहुत कुछ
में गवां चूका हूँ अपने जीवन से
और कोशिश करके भी नहीं जीत पा रहा हूँ
अपने आप को अपने नशे की लत से
शायद शरीर के साथ साथ मनोबल भी जा चुका था
और आत्मसमर्पण अपनी इस कमजोरी के आगे
करना फिर तय था या कहू होना ही था
यूँ तो चार कंधे की जरुरत
मौत के बाद पड़ती है
परन्तु मुझ अभागे ...
नहीं नहीं अभागा कहना खुदको
अभागेपन के साथ भी अन्याय होगा
पापी शायद कुछ ठीक लगे
मेरा साथ जोड़ना
क्योंकि मुझ पापी की सारी उमर जो कटी है
चार पाए वाले आदमी की तरह
जो हाथ पैर होते हुए भी
रगड़ता घिसटता जीया हो सारी जिन्दगी
बोझ रहा हो जो खुद पर परिवार पर समाज पर
धत्त !!!!! ये भी कोई मैंने जिन्दगी जी.................... रवि कवि

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