बेटे का दिया कम्बल.......................
एकांत घर के किसी कोने में
खाली लिफाफे सा, कूडे सा बिखरा
हर आहट पर पथराई आँखों से टूटती उम्मीद लिए
सहारे के लिए लाठी ढूंढ़ता
और फिर लडखडाते क़दमों से
उठने की कोशिश करता
ये शख्स हर रोज़ यूहीं नजर आता है
मोहल्ले के पुराने लोग कहते है
कि कभी बड़े सरकारी अफसर हुआ करते थे
बड़ा रौब था, खुद इज्ज़त थी
पैसा भी बेहिसाब कमाया
अपने बच्चों को खुद अच्छा पढाया
लेकिन ये सब बातें सुनकर
कुछ यकीं सा नहीं होता
कि ये वोही शख्स हो सकता है
चेहरे पर अनगिनत झुर्रिया
एकदम शिथिल जर्जर शरीर
कमजोर आँखे लडखडाती जुबान
हर किसी से सहारे की आस लिए
उम्र शायद 65 से ज्यादा नहीं लगती
पर इतना बेबस इतना मजबूर
आश्चर्य है - कितना बेचारा है
लेकिन ये कहानी केवल उस शख्स भर की नहीं
बल्कि आज लगभग हर बुजुर्ग की होती जा रही है
जो अपने ही घर में पराया है
अपने बच्चे भी जिसे एक नजर उठा कर नहीं देखते
जो खुद का इलाज़ - खुद ही करता रहता है
और मौत से पहले - बार बार जीता मरता है
ये आज के वर्तमान युग की
बेहद कड़वी सच्चाई है
जहाँ अब बूढे असहाए माँ बाप
औलाद के होते हुए भी
पल पल तिल तिल घुट घुट कर जीते है
झूटी उम्मीद में बुढापा काटते है
घर होते हुए भी
वृद्ध आश्रम की जिन्दगी जीना
या गरीब हुए तो
दर दर की ठोकर खाकर जीना
हाय री ! ये दुनिया
किस बात की तरक्की का तुझे नाज़ है
गर अपने बुजुर्गों को
उनके अंतिम पड़ाव में
अपने ही प्यार से वंचित रखे
तो क्या पाया हमने
ऐसा विकसित होके
जहाँ रिश्ते छोटे
और मीनारों की ऊंचाई बढती रहे
तो ये कैसी तरक्की है ?
होना तो पड़ेगा बूढा सबको एक दिन
किस भ्रम में जी रहे हो
बेशक आज तुम नहीं हो
लेकिन सहोगे ये सब
वोह दिन कोई बहुत दूर नहीं है
आपके द्वारा दिया गया
अपने बाप को कम्बल
जरुर वापिस एक दिन आपको मिलेगा
ये तो सब संस्कार की फसल है
जो बोया जायेगा वोही कटेगा...................... रवि कवि
खाली लिफाफे सा, कूडे सा बिखरा
हर आहट पर पथराई आँखों से टूटती उम्मीद लिए
सहारे के लिए लाठी ढूंढ़ता
और फिर लडखडाते क़दमों से
उठने की कोशिश करता
ये शख्स हर रोज़ यूहीं नजर आता है
मोहल्ले के पुराने लोग कहते है
कि कभी बड़े सरकारी अफसर हुआ करते थे
बड़ा रौब था, खुद इज्ज़त थी
पैसा भी बेहिसाब कमाया
अपने बच्चों को खुद अच्छा पढाया
लेकिन ये सब बातें सुनकर
कुछ यकीं सा नहीं होता
कि ये वोही शख्स हो सकता है
चेहरे पर अनगिनत झुर्रिया
एकदम शिथिल जर्जर शरीर
कमजोर आँखे लडखडाती जुबान
हर किसी से सहारे की आस लिए
उम्र शायद 65 से ज्यादा नहीं लगती
पर इतना बेबस इतना मजबूर
आश्चर्य है - कितना बेचारा है
लेकिन ये कहानी केवल उस शख्स भर की नहीं
बल्कि आज लगभग हर बुजुर्ग की होती जा रही है
जो अपने ही घर में पराया है
अपने बच्चे भी जिसे एक नजर उठा कर नहीं देखते
जो खुद का इलाज़ - खुद ही करता रहता है
और मौत से पहले - बार बार जीता मरता है
ये आज के वर्तमान युग की
बेहद कड़वी सच्चाई है
जहाँ अब बूढे असहाए माँ बाप
औलाद के होते हुए भी
पल पल तिल तिल घुट घुट कर जीते है
झूटी उम्मीद में बुढापा काटते है
घर होते हुए भी
वृद्ध आश्रम की जिन्दगी जीना
या गरीब हुए तो
दर दर की ठोकर खाकर जीना
हाय री ! ये दुनिया
किस बात की तरक्की का तुझे नाज़ है
गर अपने बुजुर्गों को
उनके अंतिम पड़ाव में
अपने ही प्यार से वंचित रखे
तो क्या पाया हमने
ऐसा विकसित होके
जहाँ रिश्ते छोटे
और मीनारों की ऊंचाई बढती रहे
तो ये कैसी तरक्की है ?
होना तो पड़ेगा बूढा सबको एक दिन
किस भ्रम में जी रहे हो
बेशक आज तुम नहीं हो
लेकिन सहोगे ये सब
वोह दिन कोई बहुत दूर नहीं है
आपके द्वारा दिया गया
अपने बाप को कम्बल
जरुर वापिस एक दिन आपको मिलेगा
ये तो सब संस्कार की फसल है
जो बोया जायेगा वोही कटेगा...................... रवि कवि
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