रोज़गार की आस
एक गई, दो गई, तीन गई
अब तो पुरे दर्ज़न गई
बड़ा की कच्चा शिकारी निकला
और हर बार खुद ही शिकार बन बैठा मैं
किसी ने चमक में फीका बताया
तो कोई मुझमे कुछ खास न पाया
कोई मुझे लायक ही न समझा
और कोई मेरा मोल कौडी बताया
पर हर बार बार बार
मेरा सपना चूर चूर भरपूर किया
मुझे सपने देखने का कोई हक नहीं है
इस बात का अहसास बार बार कराया
मेरी उमीदों को टूटना हर बार पड़ा
में बिखरता रहा, कुम्ह्लता रहा
तमाशा बनता रहा
लोग बुलाते रहे, लोग नकारते रहे
मेरे सपनो की दुनिया उजाड़ते रहे
और रोज़गार की आस में बैठा ही रह गया
सुखी नजरो से आसमान की और देखते हुए
हवाओ के झोखो में उलझे हुए
काश ये मेरी किसी रात का कोई बुरा स्वप्न हो
जब सुबह हो तो दफ्तर भागने की दौड़ लगी हो ......................... रवि कवि
अब तो पुरे दर्ज़न गई
बड़ा की कच्चा शिकारी निकला
और हर बार खुद ही शिकार बन बैठा मैं
किसी ने चमक में फीका बताया
तो कोई मुझमे कुछ खास न पाया
कोई मुझे लायक ही न समझा
और कोई मेरा मोल कौडी बताया
पर हर बार बार बार
मेरा सपना चूर चूर भरपूर किया
मुझे सपने देखने का कोई हक नहीं है
इस बात का अहसास बार बार कराया
मेरी उमीदों को टूटना हर बार पड़ा
में बिखरता रहा, कुम्ह्लता रहा
तमाशा बनता रहा
लोग बुलाते रहे, लोग नकारते रहे
मेरे सपनो की दुनिया उजाड़ते रहे
और रोज़गार की आस में बैठा ही रह गया
सुखी नजरो से आसमान की और देखते हुए
हवाओ के झोखो में उलझे हुए
काश ये मेरी किसी रात का कोई बुरा स्वप्न हो
जब सुबह हो तो दफ्तर भागने की दौड़ लगी हो ......................... रवि कवि
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