इतनी भी क्या पीजिये...................

इतनी भी क्या पीजिये
जो होश ही खुद का ना बचे
बीवी बच्चो तक की कोई
सुध बाकी ना रहे
रात भर भटकते फिरते
एक कदम आगे
चार कदम पीछे
दुसरो से पूछते दिखे
खुद अपने ही घर का पता
और जब हुई सुबह
तो मिले
किसी नाले या गटर में
दिए हुए मुंह पड़े
बेचारी बीवी और बच्चे
दर दर खोजते खोजते
शर्मिंदगी का दर्द लिए
तुम्हारा अस्तित्व विहीन
बोझ ढो ढो के
जैसे तैसे
घर के ठिकाने पर ले
आने को मजबूर हो
तो लानत है ऐसी जिन्दगी पे
जो खुद की ही जिन्दगी पी पी के
रोज गल सड़ रही है
और अपने साथ ना जाने
कितनी ही जिंदगियों को
जो तुमसे अपनी जिन्दगी को
सवारने की उम्मीद लगाये बैठे है
उनको और उनको सपनो को
तिल तिल पल पल मार रही है
काश तुम समझ पाते कभी
उनके सपनो का अर्थ
जो तुम्हारे अपने है
और तुमसे ही उनके
सपने सपने है
काश !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!............................... रवि कवि

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