देश की राजनीति का चीरहरण नेता रूपी दुशासन हर रोज करता है मायावी ..छलावी हरकतों से मानवता पर कड़ा प्रहार करता है ना राम का कृष्ण का ना किसी धर्मं का यहाँ पर आचरण दिखता है ये तो रावण, कंस, शिशुपाल और शकुनी की तरह स्वार्थ की चालें चलता है हर रोज नए प्रपंच ठगने के शातिर होकर दांव चलता है खादी को बदनाम और माँ भारती का अपमान बेशर्म होकर करता है वोट और सिर्फ वोट से ज्यादा नहीं कीमत जिसके लिए इंसान की बे-हया होकर ये ढोंग रचता है राजनीति बेच बेच कर घर अपना और अपनों का भरपूर भरता है ईमानदारी को रोज अपने जूतें के तलवे से कुचलता है जिसे नहीं है परवाह बच्चों के भूख की उनके भविष्य की युवाओं के सपनो की सिर्फ और सिर्फ लूटना जिसका एकमात्र लक्ष्य रहता है सच तो ये है कि नेता का ये चरित्र दुशासन से भी ज्यादा दरिंदा है दुशासन ने तो एक बार ही चीरहरण किया था मगर ये नेता तो देश का चीरहरण पल पल कर रहा है मगर ये नेता तो देश का चीरहरण पल पल कर रहा है .................रवि कवि
सुना है आजकल वैचारिक महामारी का अघोषित आपातकाल लागू हुआ है जो सीधा हर दिलो - दिमाग को अपनी गिरफ्त में ले रहा है जिसके असर से अब शहर में हर कोई शह और मात का खेल खेल रहा है जो चाय की दूकान पर साथ बैठकर चाय पिया करता था जो अख़बार का एक पेज मेरे हाथ में और दूसरा पेज उसके हाथ में हुआ करता था आज वही नफ़रत के लिबास को ओढ़ कर घर से निकलता है चाय या अखबार नहीं अब उसे पत्थर प्रिय लगते है जो पत्थर घर बना सकते है या रास्ते अब उन्ही पत्थर से उजाड़ने की इबारत लिखी जाती है उसे शायद किसी ऐसी ही वैचरिक महामारी ने घेर लिया है ये वो महामारी है जिसमें दिमाग भावना शून्य हो जाता है और फिर भाव शून्य मन और शरीर एक रोबोट की तरह काम में लग जाता है जिसे ना खून का रंग पता है ना संबंधों का वो तो महज रोबोट बन अपने स्वार्थी आकाओं के कहने पर बस कहीं भी कहीं पर भी बिफर या कहे फट पड़ता है और देखते देखते - आँखों के सामने ही बेगुनाहों की जिन्दगी और उनका घर बार सब इस वैचारिक महामारी की चपेट में खामोश हो जाता है पर फर्क कोई किसी को नहीं पड़ता क्यूंकि आजकल लगभग हर कोई किसी ना किसी वैचारिक महाम
जिन्दगी ने बहुत कुछ दिया, कुछ मन का और कुछ अपनी तरह का दिया रोज रोज हमने जिन्दगी को जिया ये सोच के जिया कि आने वाला पल बहुत खास होगा ऐसा होगा जहाँ सब कुछ मन का होगा यही आस लिए जिन्दगी रोज रोज प्रयास करती है जिन्दगी मेरी भी सबकी भी एक ही तरह से चलती है सपनो की ऊँची उड़ान हर रोज हमारे अरमान लिए उडती है और सुबह से शाम तक जिन्दगी न जाने कितने अजनबी तूफानों से लडती है आती है जाती है – ना जाने क्या क्या जिन्दगी करवाती है यही है जिन्दगी मेरी भी – तेरी भी – सबकी भी लेकिन फिर भी बहुत खुबसूरत अहसास है जीने का ये जब अपनों से जरा सा भी अपनापन जो मिल जाये मानो तेज दौड़ती जिन्दगी को सुकून की छाँव मिल जाये रिश्तों की महक से फिर जिन्दगी का खिल जाना दिल को असली सुकून देता है हम भी खास है .. ये अहसास देता है
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