मैं किसान हूँ,

बस सितम दर सितम सहे जा रहा हूँ अपनों से दूरी बेगानों से शिकवा मिली घाव घेहरे होते रहे और दर्द से चीख उठती रही मगर फिर भी हाथ में हल लिए अपने खेतों पे जा रहा हूँ मैं किसान हूँ, अपनी माटी की खुसबू और अपनी फसलों से मोहब्बत में जिन्दगी से जुगलबंदी कर रहा हूँ टाट पैबंद के कपडे लपेटे सुबह से शाम सिर्फ मेहनत के भरोसे कर्तव्य अपना किये जा रहा हूँ मैं किसान हूँ, सूखी रोटी खाकर , खुद से खुद की झूटी तसल्ली दिलाकर क़र्ज़ के बिस्तर पे फटेहाल जिन्दगी से बदतर तकिये पे सर टिका कर रात भर अगले दिन की खबर के सपने बुने जा रहा हूँ मैं किसान हूँ, खुद के घर के चूल्हे में आग जले न जले मगर औरों के पेट की फिक्र में खुद के पेट में आग ही आग जला के तपे जा रहा हूँ काली रात जो कभी न सुबह देख पायेगी ऐसी जिन्दगी को जीकर पीकर सवाल बने जा रहा हूँ मैं किसान हूँ, कैसा इंसान हूँ लहुलुहान हूँ मगर लहू बहता हुआ दिखा नहीं सकता हाँ ! लेकिन औरो का पेट मेरे लहू की कीमत पर है भरता है और देखिये ये बिडम्बना कैसी है जो औरो के लिए तिल तिल पल पल मरता है उसकी जिन्दगी की कीमत जला हुआ कोयले से ज्यादा कुछ नहीं मैं किसान हूँ, मेरा अस्तित्व अब इस मशीन युग में कुछ नहीं, कुछ नहीं ................ रवि कवि

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